महर्षि दयानंद सरस्वती जिन्हें लोग धार्मिक एवं सामाजिक प्रवर्त्तक के रूप में देखते हैं, बहुत कम लोग ही जानते हैं कि स्वराज्य एवं स्वधर्म के सही मायने में कोई सूत्रधार थे, तो वे महर्षि दयानंद सरस्वती ही थे। नेपथ्य में रहकर महर्षि ने एक ऐसी क्रांति को जन्म दिया, जिसकी परिणति लाल किले पर तिरंगे के रूप में हुई। यह सब न तो इतनी सरलता से हुआ और न ही अचानक हुआ, पार्श्व में था वह साधू- समाज जिसने अपने पांडित्य और सूझ-बूझ से लोगों को एक सूत्र में पिरोकर उनका मार्गदर्शन किया। आदि शंकराचार्य की विचारधारा से प्रेरित होकर स्वामी ओमानन्द, स्वामी पूर्णानन्द, स्वामी विरजानंद एवं स्वयं महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूरे सनातन समाज को साथ लेकर स्वतंत्रता की अलख जगाने का काम किया। जब देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तब महारानी विक्टोरिया ने लॉर्ड मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा नीति को पूरे भारत में लागू कर दिया ताकि देशवासी मानसिक रूप से सदैव अंग्रेजी संस्कृति के पोषक रहें। साधू-समाज इस षड्यंत्र को भली-भांति समझ गए और उन्होंने परंपरागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति को जीवित रखने का संकल्प लिया।